Tuesday, December 22, 2020

आध्यात्मिक यात्रा


वास्तव में किसी भी यात्रा का सारांश करना मुश्किल है। कोई भी यात्रा विभिन्न अनुभवों का एक संग्रह है। इन सभी अनुभवों को यादें या कहानियां कहा जा सकता है। लेकिन एक विशिष्ट अंतर्निहित कारक इन यात्राओं को प्रेरित करता है - वह है - मैं यह चाहता हूँ / मुझे यह चाहिए  यह चाह धन से लेकर आत्म-साक्षात्कार तक कुछ भी हो सकती है। 

हालांकि बाहरी रूप से ऐसा प्रतीत होता है कि आत्म-साक्षात्कार की मांग भी किसी वस्तु की मांग जैसे ही है  हम कोई भी मांग करते है तो वो किसी कमी के आभाव से ही शुरु होता है। 


मेरे सवाल या बल्कि मुझे आश्चर्य है कि क्या वास्तव में हमारे अंदर कोई कमी है या यह सिर्फ सिस्टम द्वारा बनाई गई कृत्रिम आवश्यकता है। असल में, देखा जाए तो हममें से ज्यादातर लोगों की एक ही मांग होता है कि इस शरीर को जीवित रखने और जीने के लिए बुनियादी जरूरतें पूरी होजाये। एक बार जब बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं, तो जब तक सिस्टम का धक्का नहीं लगता तो किसी और मांग की आवश्यकता ही नहीं होती है, मुझे नहीं लगता कि हमें कुछ और हासिल करने की कोई आवश्यकता है। 

फिर मांगने की आवश्यकता कहां से और क्यों उठती है

अगर यह मांग अद्यात्म के बारे में है तो हमे बहुत गंभीरता से इस मांग को पूरा करने में लग जाना चाहिये। क्यूंकि यही  मांग ही तो एक सच्ची मांग है :-) 

इस संदर्भ में, आध्यात्मिक मांग भी संसारीक मांग का स्वाद दे सकता है। किसी भी प्रकार की तलाश हमें उससे दूर ले जाती है जो हम वास्तव में हैं। 

हालांकि सभी आध्यात्मिक गुरु कहते हैं कि यहां कुछ बनने का मार्ग नहीं है, परन्तु बनने बनाने से हटना है। फिर भी सभी संस्थान कुछ बनाने का ही ज्ञान बाँट रहें है। यह ज्ञान सिखाया नहीं जा सकता, हर साधक का यह अनुभव होगा  

फिर भी, मुझे ईमानदारी से यह स्वीकार करने की आवश्यकता है कि विभिन्न गुरुजनों की शिक्षा का पालन करके मुझे निश्चित रूप से बहुत अंतर्दृष्टि मिली जो कि बयान नहीं किया जा सकता।

आध्यात्मिक यात्रा का चरमोत्कर्ष यही अभिव्यक्ति है जिसे यूजी (यू जी कृष्णमूर्ति) अक्सर उपयोग करते हैं, "प्रश्नकर्ता प्रश्न के साथ मर जाता है", यह बहुत बड़ा सच है और यही मेरा अनुभव भी रहा है। 

इस यात्रा के दौरान, हमारी  ऐसे एक गुरु से भी भेंट होती है, जो कहेगा कि आप अब इस यात्रा के अनुभवों को साथी साधकों के साथ साझा करना और व्यक्त करना शुरु कर दें।  इस माया के खेल में एक साधक का यह दूसरी पड़ाव है या कह ले की साधक को अपने इस जीवन का उद्देश्य मिल गया। 

इस संसार में, प्रत्येक व्यक्ति और जो कुछ भी हो रहा है, वह उस अज्ञेय अद्वैत सत्ता की अभिव्यक्ति है।

इसी सत्य में मेरी यात्रा आरम्भ होती है, और इसी मे समाप्त होती है


3 comments:

  1. धन्यवाद अपने अनुभव साझा करने के लिए। यही दूसरे साधकों को प्रेरणा देता है।

    "प्रश्नकर्ता प्रश्न के साथ मर जाता है" - कृपया इसपर थोड़ा और प्रकाश डालें।

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    1. प्रश्नकर्ता कौन है, पहले इसकी जाँच आवश्यक है। इस आत्मज्ञान की यात्रा में प्रश्न केवल अहम को आते है। ज्ञान की प्राप्ति तभी हो सकता है जब यह बोध होजाये की अलग अहम या व्यक्ति तो है ही नहीं। इसी को यू जी कृष्णमूर्ति ने कहा की "प्रश्नकर्ता प्रश्न के साथ मर जाता है। जब तक इस अहम को अपनी वास्तविकता का ज्ञान नहीं होता, तब तक केवल प्रश्न होते है, ज्ञान नही। जब अहम मर जाता है, तब केवल ज्ञान, कोई प्र्श्न नही और प्र्श्नकर्त्ता भी नही।

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