आध्यात्म का पहला चरण
वैज्ञानिकों की भांति, हम जब आत्मज्ञान की खोज में निकलते हैं, तो आत्मा को भी बाहरी जगत में ढूँढ़ते है, या फिर ऐसे कह लो की जिस तरह किन्ही वस्तुओं को ढूढ़ते है, उसी तरह "मेरी आत्मा" नाम की
वस्तु को ढूंढ़ने लग जाते हैं। इसीलिए हज़ारों जन्म लग जाते है या फिर वो लोग इतने दुखी हो जाते है की यह साबित कर देते है की आत्मा नाम की कोई चीज़ है ही नहीं, केवल मात्र यह जगत है, जो साक्षात प्रतीत
होता है। क्यूंकि हमें थो यही सिखाया गया है की जो दिखता नहीं वो है ही नही।
अगर मैं कहूं कि जो दिखता नहीं लेकिन उसके होने का एक
आभास मात्र है, और जो सदा सदा के लिए है। वो कैसे संभव है ?
परंतु जो आद्यात्म के पथ पर चल पड़ा है, उसे आँखों देखी या कही सुनी बातो से सिर्फ भ्रमित नहीं होना है, परंतु हर बात को जाँच कर अपना मार्ग खुद ही बनाना है। गुरु मात्र एक मार्ग दर्शक ही है, उसकी कही बातों को भी जांचना पड़ेगा, तब मिलता है आत्मज्ञान।
कहाँ है यह आत्मा? है तो नज़र क्यों नहीं आता? यह ज्ञान निश्चित ही सांसारिक ज्ञान की तुलना में थोड़ा भिन्न है। वो तो होगा ही 😊
यह तो समझ में आता है की इसे वस्तुओं की भांति बहार नहीं ढूंढ सकते। मगर जब कोई कहता है की अपने अंदर ढूंढो तो भी समझ में नहीं आता। तो करें तो क्या
करें?
आत्मज्ञान भी वैज्ञानिक अनुसंधान की भांति क्रमशः है। परंतु यह एक मात्र अनुसन्धान है जो केवल ५मिनटों में पूरा हो सकता है। यहां कोई परिहास नहीं हो रहा है, केवल सच्चे अनुभव का लेखन है।
अगर केवल ५मिनटों में आत्मज्ञान हो सकता है तो कई साल या फिर हज़ारों जनम की साधना क्यों बताई जाती है? इसका कारण तो हम ही है क्यूंकि अगर किसी भी ज्ञान को केवल ५ मिनट लगे तो उसका मूल्य क्या रह जाएगा ? हमें तो वैसे ज्ञान पसंद है जो कोई आश्रम में जा के बहुत सारा धन और समय व्यतीत करने पे मिले तो उसका मूल्य होता है।
अगर आप तीव्र किस्म के जिज्ञासु है और अब चाहते है की लेखक काम की बात बता दे तो चलिए हम अपनी आत्माज्ञान अनुसन्धान की क्रमश: शुरुआत करते है।
हर ज्ञान की भांति हमें जो भी नज़र आता है उसी की जांच से ही शुरु करते है। हम मनुष्य है तो फिर मनुष्य शरीर से ही शुरुआत करते है।
हमारे शरीर को अगर करम से हटाकर देखें तो वह एक वस्तु है। वह एक साधन है, जिसका प्रयोग करके हम भिन्न कार्य करते है।
जब यह जाँच करते है तो भली भांति ज्ञात हो जाता है कि, शरीर में नहीं, अंदर कही चेतना है और मैं शरीर नहीं हो सकता।
पहले क्रमश शरीर से दुसरे क्रमश मन की और बढ़ते है। मैं शरीर तो नहीं पर क्या मन ही आत्मा है?
मन अपने आप में ही एक विज्ञान है। परंतु अभी के लिए उसको केवल विचारों की गठरी मान कर आगे बढ़ते हैं।
कोई भी एक विचार सोच लीजिये, २+२= ४, जब यह विचार आता है, या फिर विचार करते है, उसको अगर शब्द या भाषा नहीं देते है थो वह केवल एक चित्र की तरह प्रकट होता है। जो अपने से अलग दिखता है, वो मैं तो नही हो सकता, वो आत्मा नहीं। तो कहाँ है आत्मा? है भी या नहीं ?
इतनी दूर आने के बाद अगर किसी को भी इस बात का ज़रा भी अनुमान होता है कि मुझे कुछ ढूंढ़ना नहीं परन्तु ढूंढ़ने को रोकना होगा, तो उसको आत्मज्ञान हो जाएगा।
आत्मा कोई अनुभव नहीं ये जानना होगा। वो तो अनुभव करने वाला है। वो
दृश्य नहीं , वो दृष्टा है। शरीर का , मन का, जगत का।
यही आत्मज्ञान है , और यही आध्यात्म का पहला चरण है।
यही माया का खेल है की आपको जिज्ञासु बनके चारों और दौड़ाती है, दर दर भटकाती है। आत्माज्ञान सीकिंग से शुरु होकर नो सीकिंग पर ठहरता है।
आत्मा केवल अपने में ही पूर्ण है। वह ही है
और कुछ नही।
आद्यात्म के अगले चरण के बारें में हम अगली बार बात करेंगे।
धन्यवाद।
बहुत अच्छा लेख है। नए ब्लॉग के लिए हार्दिक शुभकामनाएं।
ReplyDelete🙏 धन्यवाद् तरुण जी।
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