इस अस्तित्व में हम किसी भी वस्तु, क्रिया, या शब्द का अर्थ जान या समझ नहीं सकते हैं। व्यावहारिक जीवन के लिए, नियंत्रण और सरलता के लिए हमने अनेक भाषाएँ बना ली हैं। इसी क्रम में हमारी भाषाओँ में सीमित होने वाले सारे शब्दों का अर्थ भी बना लिया है।
इस लेख में हम
पूर्णता पर चर्चा करेंगे।
पूर्णता
क्या है?
अभी
अगर हमें पूर्णता का अर्थ बताना हो तो क्या बताएँगे? पूर्ण वो है जिसमें कोई दोष नहीं है, कोई त्रुटि नहीं है। पूर्ण
वो जो अपने में पूरा है, जिसमे
कुछ निकलने की या फिर कुछ और जोड़ने के आवश्यकता ही नही।
इस
संसार में जो प्रकट या प्रतीत हो रहा है, जैसे
वस्तु, व्यक्ति, प्रक्रिया और अन्य पदार्थ, किसी को भी हम यह सिद्ध नहीं
कर सकते है की यह पूर्ण है और यह अपूर्ण है। ऐसा इसलिए क्योकिं पूर्ण और अपूर्ण तो
मनुष्य निर्मित है। अस्तित्व में हर एक पदार्थ अपने में पूर्ण है।
उल्लेख के लिए
हम मनुष्य से शुरुआत करते हैं, पूर्णता
को समझने के लिए। मनुष्य का
शरीर, मनुष्य का व्यव्हार, मनुष्य का सामर्थ्य, मनुष्य का मन और बुद्धि बल आदि, ऐसे कई सारे गुणों से उसे
पूर्ण कहते है। अगर शरीर के सारे अंग, अंगों
की प्रतिक्रियाएं ठीक काम कर रही हैं तो उसे हम पूर्ण कहते है। शरीर के सारे अंग
ठीक हो परन्तु मानसिक गतिविधियां ठीक न हों तो वो पूर्ण व्यक्ति है या अपूर्ण?
चलिए एक और
उपमा ले लेते हैं। मनुष्य शरीर जन्म के समय में एक शरीर होता है, फिर यौवन में अलग और वृद्धा
अवस्था में अलग शरीर होता है। इसमें से कौनसा शरीर पूर्ण है या अपूर्ण है?
कई
बार हम सबने यह तो अनुभव किया होगा की एक ही
पौधे में फूल भिन्न उत्पन्न होते है। उसमे एक हमे परिपूर्ण लगता है और दूसरा फूल
अपूर्ण लगता है।
इस तरह अगर हम, हर एक वस्तु, क्रिया, प्रतिक्रिया, के विषय में अनुसन्धान
करेंगे तो हमें ऐसी कोई भी वस्तु या व्यक्ति नहीं मिलेगा जो पूरी तरह से पूर्ण हो।
तो इसका अर्थ क्या है, क्या
हमने पूर्णता का अर्थ गलत समझा है? या
फिर इस संसार में पूर्णता कुछ भी नहीं है? या
फिर सब कुछ केवल पूर्णता ही है?
हम जब अस्तित्व
को गुणों में सीमित करते है तो पूर्णता या अपूर्णता जैसी मान्यताएं उत्पन्न होती
हैं। इस अस्तित्व में जो भी प्रतीत हो रहा है वो अस्तित्व ही है, तो अस्तित्व का एक रूप या
प्रतिक्रिया पूर्ण या अपूर्ण कैसे हो सकती है? क्यूंकि अस्तित्व में पूर्ण और
अपूर्ण होने की सम्भावनाये समानता से उपलब्ध है।
हम
तर्क के लिए यह मान लेते है की अस्तित्व में अपूर्णता है। तो उस अपूर्णता को
पूर्णता के गुणों से तुलना करके निश्चय करना पड़ेगा की एक वस्तु पूर्ण है, और दूसरा वस्तु अपूर्ण है।
इस तर्क के अनुसार अगर हमने अस्तित्व को गुणों में सीमित कर दिया तो अस्तित्व में
अनंत सम्भावनायें निश्छेद होजायेंगी, पर
यह हमारा अनुभव नहीं है। यह अस्तित्व तो अनंत संभावनाओं का एक महा सागर है।
अस्तित्व
अपने में शून्य है। वह पूर्ण और अपूर्ण का
ऐसा संगम है जो दोनों को समाये हुए है। इसीलिए वोह पूर्ण या अपूर्ण नहीं, दोनों ही एक सात है।
हमने
अपनी भाषा मैं पूर्णता को उच्च स्थान दे दिया है, इसलिए यह कह देना की केवल पूर्णता है, अधिक सही है।
इस अस्तित्व के हर एक व्यक्ति, वस्तु और
प्रतिक्रियाएं संपूर्ण है, और इस अस्तित्व में कहीं भी
अपूर्णता है ही नहीं, या ऐसे कहलो की अस्तित्व को गुणों से परचित नहीं करसकते।
अस्तित्व केवल है।
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